Saturday 5 November 2016

वर्तमान की समस्याओं से मुठभेड़ है ‘कुड़ेदान में बचपन’
नासिक (महाराष्ट्र) के एक विद्यालय में अध्यापक एवं युवा रचनाकार रवि शुक्ला की प्रथम पुस्तक हाथों में है। शर्मसार करने वाले विभिन्न विषयों पर संवेदनशील चिंतन प्रस्तुत करती 9 कहानियों के माध्यम से मात्र 27 वर्षीय लेखक ने साहित्य जगत में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। पुस्तक प्रथम दृष्टया सुंदर रंगीन आवरण पृष्ठ, बढ़िया कागज और उस पर निर्दाेष छपाई के माध्यम से पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है तो सभी कहानियां सरल, सहज, प्रवाहमान भाषा में अपना संदेश देने में सफल है।
सर्वप्रथम शीर्षक कहानी ‘कूड़ेदान में बचपन’ की चर्चा करें। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने कूड़ा बीनने वाले बच्चों की दारुण स्थिति का  संस्मरणात्मक चित्रण किया है। अनेक स्थलों पर दार्शनिक पुट लिये यह कहानी शेष सभी कहानियों के मुकाबले आकार से प्रभाव तक बड़ी होने के नाते इस संग्रह की आत्मा कही जा सकती है। देश की अर्थव्यवस्था से सामाजिक व्यवस्था तक की खबर लेती यह कहानी  पढ़ते हुए पाठक स्वयं को उसका  पात्रों को अपने परिवेश में ही अनुभव करता है। यथा-
‘बस! बस! इस समाज के डर से।
सिर्फ उनपर दया करने का, उन्हें म्लेच्छ समझने का अधिकार मुझे इस समाज ने दिया था।
हा हा हा ... समाज... समाज!!
समाज! कौन सा समाज?
किस बात का समाज?
किस आधार का समाज? किस समाज की बात कर रहा हूं मैं। उस समाज की जिसे इन नौनिहालों की चिंता नहीं। उस समाज की जिन्हें भावी पीढ़ी के कचरे में खोने की फिक्र तक नहीं सताती।
वह समाज जिन्हें केवल अपनी राह दिखाई देती है। ऐसे समाज से मैं डर का रुका रहा।’
इसी प्रकार एक अन्य कहानी ‘मेरे बाबूजी’ भी संस्मरणात्मक कहानी हैं। निम्न-मध्यम परिवार की आर्थिक कठिनाईयों का चित्रण करते हुई यह कहानी जहां संस्कार हस्तातरण को दर्शाती है वहीं छोटी सी सफलता पर इठलाते युवक को  सचेत करती है। यथा-  ‘अखबार में नाम तो चोर-डकैतों के भी छपते हैं। जरू़री क्या है, खुद तय कर लो। वक्त रहते न सुधरे तो कोई पच्चीस पैसे भी भीख में न देगा। हमारी चिंता मत करो, हमें तुमसे कुछ न चाहिए पर अपनी चिंता जरूर करों।’ इस बार मार नहीं थी। मार तो शरीर सह भी जाता। वह दर्द के साथ उतर जाती है। पर ये बोल मेरे लिए बाबूजी की उस मार से भी बढ़कर थे।
‘‘थके पांव’ के माध्यम से मातृविहीन बच्ची को पालने, संभालने (सिंगल पेरेन्टिंग) की भावनात्मक कठिनाईयांे का चित्रण है। हालांकि कहानी मुन्नी की शादी और उसकी विदाई के बाद पिता सोहनलाल की मानसिक स्थिति को चित्रित करती है लेकिन उसके संदेश व्यापक है। यथा- ‘बेटियां जिनके रहे से घर में स्वगा्रनुभूति होती है। जिनकी हंसी- ठिठोली पिता की सांसे होती है। जिनके चेहरे की एक खुशी से पिता का दिल भर आता है। आज वहीं मुन्नी इस घर को, पिता को ससम्मान विदाई दे चुकी थी।’
‘बेधर्म आतंक’ साम्प्रदायिक एकता पर केन्द्रित है जिसके मात्र दो ही पात्र हैं मन्ना लाल और सल्तनत। मालिक हिंदू, नौकर मुसलमान। दोनो अपने- अपने धर्म का पालन करते हैं परंतू कहीं कोई कट्टरता या कटुता नहीं। देखे- ‘बस फर्क इबादत के सलीके का है। गुरु हाथ जोड़कर साधना करता है तो चेला हाथ खोलकर। क्या फर्क पड़ता है।’
‘कल्ली’ उस विकलांग के साहस की दास्तां है जिसके बोझ करार दिया गया था। इस कहानी के माध्यम से रचनाकार समाज को संदेश देने का प्रयास करता है कि असक्षमता शरीर से अधिक मन- मस्तिष्क में होती है।
शेष कहानियां जैसे ‘थोड़ा प्यार’ बालमन की भटकन तो ‘5 रु के फूल’ गरीबी के शिकार कलुआ, मुनिया के प्रेम- सद्भावना को प्रकट करती है। ‘दो रोटी’ अत्यन्त भावुक कहानी है जो सुथनी नामक नौकरानी  के मन के उतार-चढ़ाव चित्रण है जहां अंत में सच्चाई की जीत होती है और वह अंगुठी लौट देती है। वह पुरस्कार में धन नहीं हमेशा की तरह ‘दो रोटी’ ही लेना चाहती है।
‘तभी आऐंगे अच्छे दिन’ शिल्प और विधा की दृष्टि से कहानी नहीं है लेकिन इसमें उठाया गया नारी सुरक्षा का मुद्दा महत्वपूर्ण है।
कुल मिलाकर  एक नये रचनाकार  ने जिस तरह से कटु- कठोर यथार्थ का सामना करते एक भावुक लेकिन विवेकशील अभिव्यक्ति की है उससे भविष्य की आशाएं जगाती है। इसे पढ़ते हुए पाठक संवेदनाओं का ज्वार भाटा स्वयं के मन से आंखो के भीगने तक अनुभव करता है। दार्शनिक प्रवाह और रोचक संवाद लिए इन कहानियों में लेखक ने मुंशी प्रेमचन्द के पात्रों की ही तरह नाम -सुथनी, कलिया, मुनिया चयन किये है। भाषा भी कलिष्टता से मुक्त है। रचनाकार वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का राष्ट्रीय स्तर पर विजेता रह चुका है। उसी अभ्यास के प्रभाव के कारण अनेक स्थानों पर भाषण तत्व की अधिकता को कहीं-कही अनुशासन और कसावट की आवश्यकता महसूस होती है। समय और अनुभव भविष्य के लेखन में बेहतरी लायेगा, इसी विश्वास के साथ युवा रचनाकार रवि शुक्ला को बधाई। शुभकामनाएं! 

रचनाकार सम्पर्क- रवि शुक्ला- 8446036580
संयोग प्रकाशन, नासिक, पृष्ठ-108,  मूल्य-180 रु
समीक्षक- डा. विनोद बब्बर (संपादक-- राष्ट्र किंकर)
संपर्क-   09868211911 rashtrakinkar@gmail.com
 निवास --ए-2/9ए, हस्तसाल  रोड,
 उत्तम नगर नई दिल्ली-110059